Wednesday, May 12, 2010

क्या चमन क्या फासले गुल

क्या चमन क्या फासले गुल, बुझ गयी आँखें तो हर मंजर धुआं हो जायेगा.
रहे हक में मंजिले दारोरसन आने तो दो, जो जुबान रखता है वो भी बेजुबान हो जायेगा.

नए कमरों में अब चीजे पुरानी कौन रखता है. परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है.
हमही गिरती हुई दीवारों को थामें रहे वरना सलीके से दिलवालों की निशानी कौन रखता है.

मेरी तहजीब नंगी हो रही है, ये उड़कर इक दुपट्टा जा रहा है.
ना जाने जुर्म क्या हमसे हुआ, हमें किस्तों में लुटा जा रहा है.

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